13.5.08

आज सुबह

आज सुबह तडके ही आँख खुल गयी. बाहर अभी गौरैया भी नहीं जागी थी. अँधेरा चहुँ ओर नंगा पसरा पडा था, हवा सांस रोके लेटी थी और रोशनी ने पहली अंगडाई भी नहीं ली थी. खामोशी सड़कों पर दबे पाँव चल रही थी, इतने दबे पाँव की कागज सी हल्की नींद वाले कुत्तों को भी खबर ना लगे. इस साफ खामोशी में मानों समय के टांके भी ढीले हो रखे थे. शायद इसी खामोशी में जिन्दगी धीमे से उठ जाती है, और मुंह अँधेरे घर के सारे काम निपटा देती है, मेरी माँ की तरह.

1 comment:

Manish Bhatt said...

Thanks, Anon. Wish you'd left your name. Keep coming.