tag:blogger.com,1999:blog-76509842024-03-13T04:45:47.447-07:00Epic Monologue"Documenting life and such"Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.comBlogger391125tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-8597777523015755142016-12-28T01:28:00.003-08:002016-12-28T01:28:59.616-08:00ग़ालिब की सालगिरह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कल मेरे चहेते चचा मिर्ज़ा ग़ालिब की सालगिरह थी. उर्दू-फ़ारसी मेरी मादरे-ज़ुबां नहीं और कभी सीखी भी नहीं, रदीफ़-काफ़िये की तमीज़ हुयी नहीं, न तलफ्फुज में सफाई, न लफ्फाज़ी की औकात. फिर भी चचा और हमारे दरम्यां दो सदी का फ़ासला होने के बावज़ूद चचा से रिश्ता-ओ-राबता काफी पुख्ता है. जब हमारी पहली मुलाक़ात हुयी तो मेरी उम्र करीब 8 साल की थी. बयान कुछ यूँ है.<br /><blockquote class="tr_bq">
<br />बच्चा ही था<br /> जब वो मेरे हाथ लगा था<br /> मन की कच मिट्टी में<br />आ गिरा था<br /> पापा की बी ए की<br /> किताबों में दबा<br /> बित्ते भर का<br /> पाकेट बुक<br /><br />फिर उस मिट्टी पर गिरे<br /> केमिस्ट्री की कितनी किताबों<br /> के बुरादे<br /> और लड़कपन में<br />डेबोनायर के चमकीले<br /> सेंटरस्प्रेड्स की पालिश<br />मगर बीज जम गया<br /> तो बस जम गया<br /> एक बौना सा<br /> बौन्साई भी उगा<br /> आज भी जिस पर<br /> गाहे-बगाहे उग आते हैं<br />फीके से कुछ शेर<br />मिट्टी खास उपजाऊ न थी<br /> मगर खाली तो न गया<br /> दीवान-ए-ग़ालिब<br /> का वो सस्ता<br />पाकेट बुक</blockquote>
<br />फ़िर हमारी खुशकिस्मती कहिये कि दूजे नंबर के चचा गुलज़ार ने चचा ग़ालिब का हमारी पीढी से तआरुफ़ कराने का बीड़ा उठा लिया, और क्या ख़ूब उठाया साहब. नसीर ने ग़ालिब की रूह को एक नयी शक्ल नया जामा दे दिया, जगजीत सिंह ने एक नयी आवाज़. और चचा ज़िंदा हो गए, ऐसे कि देख सको, सुन सको, समझ सको, चख सको. और ग़ालिब का अनोखा ज़ायका दिलो-ज़हन पे एक बार ग़ालिब हुआ, तो उम्र बीती, मगर छूटे नहीं छूटा. वो तल्ख़ सी चाशनी, वो ग़म-ए-इश्क़ से सराबोर मसाइल-ए-तसव्वुफ़ , वो खुद और खुदा से नोंक झोंक, वो अंदाज़े बयां सचमुच कुछ और ही था.<br /><br />वैसे तो मुझे लगता है कि ग़ालिब का लिखा हर कोई समझ सकता है, या यूँ कहें कि ताउम्र समझते रहने की कोशिश कर सकता है, मगर हाँ, शायद ज़ुबान की समझ बीच में आ जाये. तो बस इस लिए चचा की एक ग़ज़ल को बोलचाल की हिंदी में लिखने की हिमाक़त कर रहा हूँ. उम्मीद है चचा बच्चे की गुस्ताखी समझ ज्यादा तवज्जोह नहीं देंगे. भूल-चूक की माफ़ी.<br /><br /><blockquote class="tr_bq">
बस कि मुश्किल है हरेक काम का आसां होना<br />बड़ा मुश्किल है आदमी का भी इंसां होना</blockquote>
<blockquote class="tr_bq">
हाय दीवानगी का है शौक़ यूँ हरदम मुझको<br /> खुद ही जाना उधर और फिर खुद ही हैरां होना</blockquote>
<blockquote class="tr_bq">
चाहने वालों की तू आख़िरी ख्वाहिश को न पूछ<br /> वो तो चाहें हैं बस तलवार का नंगा होना</blockquote>
<blockquote class="tr_bq">
टूटते दिल का निवाला है, जख्म खाते हैं<br /> जिगर के घाव का यूँ नमक में डूबा होना</blockquote>
<blockquote class="tr_bq">
की मेरे मरने के बाद उस ने ज़ुल्म से तौबा<br />हाय उस शर्मसार का ये शर्मिन्दा होना</blockquote>
<blockquote class="tr_bq">
हाय कपड़े की उन गांठों की क़िस्मत ग़ालिब<br /> जिनकी किस्मत में हो किसी आशिक़ का फंदा होना</blockquote>
<div>
<br /></div>
***<br /><br /><div>
ओरिजिनल ग़ज़ल कुछ यूँ है:<br /><br /><blockquote>
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना<br />आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना</blockquote>
<blockquote>
वाए, दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको<br />आप जाना उधर और आप ही हैरां होना</blockquote>
<blockquote>
इशरते-क़त्लगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ<br />ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना</blockquote>
<blockquote>
इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना ख़ाना<br />लज़्ज़त-ए-रेश-ए-जिग़र ग़र्क़-ए-नमकदां होना</blockquote>
<blockquote>
की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा<br />हाय उस ज़ूद-पशेमां का पशेमां होना</blockquote>
<blockquote>
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'<br />जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना</blockquote>
</div>
</div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-10778336734703707862016-09-05T05:25:00.000-07:002016-09-05T05:46:16.981-07:00will the real ganesh please stand up?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
It's Ganesh Chaturthi today. And despite being an atheist, musing over Hindu Gods has become somewhat of a personal tradition. Perhaps it's the ingrained brahmanic samskars, or perhaps an innate inclination for seeking deeper meanings in mythology and in general, all stories.<br />
Consider Ganesh. Don’t you think he is more than he is really letting on? His face- that of a cherubic elephant. His form- soft and ridiculously rotund. And his ride- a mouse. All this adds up to an overall comical effect. It is easy to imagine Ganesh as a portly uncle whom you could bother without fearing a backslap. Or even an over-friendly, albeit intelligent, pet. Almost no one thinks of Ganesh as fearsome or threatening.<br />
<div>
<br />
However, if you really think about it, the appearance must be just that- an appearance. It is in stark contrast with his true capabilities. Gods forbid, if it ever came to a showdown among the Gods, Ganesh could literally be the last God levitating. Isn't he the personification of the cold fearsome power of intellect, one of the deadliest forces in nature, a razor that can slice through an obstacle or opponent with equal ease.<br />
<br />
Then again, he is not merely intellect, he is also wisdom personified. Now wisdom is intellect overseen by kindness, a choice to be constructive and not destructive. In a way, his appearance is actually the most crucial piece of the legend. and not just a clever camouflage. I think he chooses to appear overtly affable and unassuming to counteract the threat he may otherwise exude. He chooses to make intellect, rationality, logic and wisdom appear benign and constructive. He chooses to fool us into thinking he is harmless. At least that is what I think. </div>
<div>
<br />
What do you think? </div>
<div>
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/--KeVlqeZFDo/V81j6fTCLXI/AAAAAAAAqFc/dcnENMIQJUsKgvJi71iix6ymZbrcty_AQCLcB/s1600/G.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="236" src="https://4.bp.blogspot.com/--KeVlqeZFDo/V81j6fTCLXI/AAAAAAAAqFc/dcnENMIQJUsKgvJi71iix6ymZbrcty_AQCLcB/s640/G.jpg" width="640" /></a></div>
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Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-83524049992435780992016-01-14T01:36:00.000-08:002016-01-14T01:36:02.427-08:00अधूरे प्यार का मलबा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जब दो शख्स तारों के महीन काम वाली आसमानी छत के तले ज़मीन के हरे बिछौने पे लेट, या कविता की केसर छिड़के बिना सीधा-सूखा कहें तो किसी सीलन वाली छत के तले बुसी चादर पे लेट एक सपना देखते हैं, जब उनमें से एक शख़्स (यानी मर्द) सपना सच होने से पहले ऊब के या रूठ के अनायास उठ के चल देता है, जब उस अधखिले सपने का ठूंठ उस पीछे छूटे शख्स (यानी मादा) में जमा रह जाता है, तब उस ठूंठ को जड़ सहित बाहर निकालने का, अधूरे प्यार का मलबा साफ़ करने का काम औरांग का है. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-3479048534201709792015-12-07T21:26:00.001-08:002015-12-07T21:28:59.752-08:00the lizard king<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
करीब 14 साल की उमर में मैंने जिम मौरीसन के बारे में पहली बार पढ़ा. याद नहीं कौन से अंग्रेज़ी अखबार की सन्डे मैगज़ीन हुआ करती थी (शायद Sunday Observer). उसकी बेलगाम क्रिएटिविटी और असमय मृत्यु ने मेरे नवयुवा, लेकिन सहज existentialist अंतर्मन पर गहरा प्रभाव डाला. पालिका से उसका पायरेटेड ग्रेटेस्ट हिट्स कैसेट खरीद कर सुना. फिर 1991 में ऑलिवर स्टोन की बायोपिक The Doors आई जिसमें Val Kilmer ने इस darkly enigmatic व्यक्तित्व को जीवंत कर दिया. तो कुछ इस तरह जिम मेरी आतंरिक माइथोलॉजी का एक स्थाई पात्र बन गया.<br />
<br />
फिर मैं जैसे जैसे बढ़ा होने लगा, मुझे लगने लगा कि जिम एक फ़क़ीर नहीं बल्कि एक फेकर था. उसकी लिरिक्स भी काफ़ी हल्की तुकबंदी सी प्रतीत होने लगी.<br />
<br />
करीब 30 की उमर में मैंने जिम की बायोग्राफी पढ़ी (Jim Morrison: Life, Death, Legend by Stephen Davis). साथ ही मैंने लिरिक्स के परे Doors की Jazz Rock शैली को musically सराहना शुरू किया. अब मुझे जिम कुछ कुछ समझ आने लगा. उसका freewheeling लिरिकल स्टाइल जो सबकौंशस व id को बिना इंटेलेक्चुअल हस्तक्षेप या फ़िल्टरिंग के कागज़ पर उतार देता था, Densmore की jazz drumming, शॉक व theatricality के एलेमेंट्स के बेहतरीन उपयोग के लिए एक नया आदर उपजा. खास तौर पे Morrison Hotel और L.A. Woman एलबम्स के लिए, जिम के भीतर के Adonis, Bacchus, Rimbaud व इण्डियन shaman के अनूठे सम्मिश्रण के लिए.<br />
<br />
आज 8 दिसंबर है, जिम का 72वां जन्मदिवस. तो हैप्पी बर्थडे मिस्टर Mojo Risin. May you keep on rising.<br />
<br />
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-PKikGWQROtg/VmZqiOcCDdI/AAAAAAAAlEk/ia2KDWHFMFM/s1600/jim-morrison-2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="464" src="http://3.bp.blogspot.com/-PKikGWQROtg/VmZqiOcCDdI/AAAAAAAAlEk/ia2KDWHFMFM/s640/jim-morrison-2.jpg" width="640" /></a></div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-81050342827077424522015-09-08T23:53:00.001-07:002015-09-08T23:53:11.534-07:00पावलोव-श्रोडिंगर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्यार और दुर्घटना कभी भी हो सकते हैं. और दुर्घटना से बचना तो फिर मुमकिन है. मगर प्यार से? तौबा तौबा !<br />
<br />
तो पावलोव जी के कुत्ते को भी हो गया साहब. प्यार, वो भी कतई खूंखार. जब भी पड़ोस के श्रोडिंगर जी की बिल्ली के गले की घंटी सुनाई देती, उसकी लार टप-टप टपकने लगती. कुत्ता-बिल्ली सुन ऐसे काहे चौंक रहे हैं जी? प्यार ने कब जात-पांत, रंग-रूप, योनि-वोनी की हदों को माना है.<br />
<br />
मगर श्रोडिंगर जी की बिल्ली बला की शर्मीली. कानों को सुनाई तो दे पर नज़र से नदारद. दिल में तो आये पर पंजों में नहीं.<br />
<br />
तो आखिर एक दिन हिम्मत करके पावलोव जी का कुत्ता लार टपकाता, पूँछ हिलाता,घंटी की टन-टन को घात लगाता, श्रोडिंगर जी के घर जा पहुंचा. देखा तो घंटी की आवाज़ एक बक्से से आ रही थी.<br />
<br />
कुत्ता अपने अंडकोष ठीक से चाट साफ़ कर बक्से के बगल में एक सभ्य घर के कुत्ते की तरह पिछले पैर समेट कर बैठ गया, और हलके से भौंका, "अजी सुनती हैं मोहतरमा?"<br />
<br />
"टन-टन. . ."<br />
<br />
"मैं आपसे बेतहाशा मोहब्बत करता हूँ जी."<br />
<br />
"टन-टन टन-टन. . ."<br />
<div>
<br /></div>
"और आप?" <br />
<br />
"टन-टन. . ."<br />
<div>
<br /></div>
अब पावलोव जी के कुत्ते का कुत्ता दिमाग फिरने लगा.<br />
<br />
"कुछ तो कहिये?"<br />
<br />
"टन-टन टन-टन. . ."<br />
<div>
<br /></div>
<div>
"देखिये, ये सरासर बदतमीज़ी है. मैं किसी ऐरे गैरे घर का कुत्ता नहीं, पावलोव जी का कुत्ता हूँ. साइकोलॉजी की हर किताब में मेरा उद्धरण होता है. समझी आप?"</div>
<div>
<br /></div>
"टन-टन. . ."<br />
<div>
<br /></div>
<div>
"उफ़, ज़िंदा भी हैं या मर गयी?"</div>
<div>
<br /></div>
<div>
"अब ये तो बक्सा खोलने पर ही पता चलेगा न." श्रोडिंगर जी की बिल्ली का जवाब आया.</div>
</div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-74422237831445988732015-08-18T03:41:00.002-07:002015-08-18T03:44:01.851-07:00औरांग का चस्का <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
औरांग को बचपन से ही ये चस्का लग गया था. जहां ख़याल में डीप फ्राइड चीज़ मिली, बस, उसकी तो लार बहने लगती थी. फिर वो चाहे मिसरों की चमचम वर्की चढ़ी कहानी हो, या लच्छेदार कुरकुरी नॉवल, रदीफ़-काफ़िये की चाशनी में डुबोई ग़ज़ल हो, या कानों में रेशा रेशा घुल जाने वाली नज़्म. या फ़िर नमकीन पे मीठे की पतली परत वाली कविता ही क्यों न हो, जिसको जितनी बार चखो अलग स्वाद आये. शुरू शुरू में तो औरांग नुक्कड़ की दुकान के माल से ही संतुष्ट हो जाता था. पर धीरे धीरे उसका चटोरापन बढ़ता गया. फिर एक दिन उसे चचा गुलज़ार की दुकान मिली, जहां ये सब मिलता था. वो भी कभी शुद्ध देसी उर्दू में बना तो कभी यू.पी. के अचारी हिंदी मसाले में, कभी पंजाबी में छना तो कभी अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों की बुरकन. बस वो दिन है और आज़ का दिन, औरांग आज भी घर जाते समय रास्ते में ही चचा की दुकान से कुछ न कुछ सामान पैक कराता जाता है. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-11538279517297759322015-06-22T23:40:00.001-07:002015-06-22T23:40:11.208-07:00पगली की मुस्कान<p dir="ltr">हम पांचवीं या छठी में पढ़ते थे जब पगली ने सेक्टर 4 के बस अड्डे को अपना घर बना लिया था. वो बस अड्डा हमारे स्कूल के रास्ते में पड़ता था. सेक्टर 3 और सेक्टर 4 के बीच की सड़क के उधर सेक्टर 4 का थाना और इधर पगली का बस अड्डा. जब हम टाइनी टोट्स के बगल वाले मैदान को पार कर कर धूलिया सर के पड़ोस के टेसू के पेड़ के नीचे से हो कर पॉवर स्टेशन को क्रॉस कर सेक्टर 4 की क्रासिंग पर पहुँचते थे तो पगली दिख जाती थी. बस अड्डे पे यूँ आराम से पसरी, मानो उसका लिविंग रूम हो. नज़र मिल जाए तो बच्चों की तरह मुस्करा देती थी. वहीँ बगल में ईंट का अनाड़ी सा चूल्हा. बाल ज़्यादा बढ़ते तो कोई काट जाता था. बड़े साइज़ के मर्दाना कपडे भी शायद कोई न कोई दे जाता था. वैसे तो उस उम्र में हम अपने छोटे से दायरे से बाहर की घटनाओं की ओर तटस्थ रहते थे, ज़्यादा सोचते नहीं थे, मगर पगली हमारे लिए कौतुहल का विषय ज़रूर थी. क्यों न हो. उस ज़माने में पागल घरों में ही झेल लिए जाते थे, उन्हें सड़क छानने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी (अब तो दिल्ली की सड़कों पर कितने ही पगले दीख जाते हैं, जटा दाढ़ी बढाए, जननांग उघाड़े). फिर एक दिन पगली का पेट बढ़ने लगा. हम आते जाते उसका पेट बढ़ते देखते रहे, सोचा नहीं क्यों कैसे. पुलिस थाने को भी शक की नज़र से नहीं देखा. पगली नज़र मिलने पर वैसे ही मुस्कराती रही. तब भी जब दिसंबर के महीने की कड़कड़ाती सर्दी में उसके बढे पेट ने बड़े साइज़ के मरदाना कपड़ों में भी छिपने से इंकार कर दिया. फिर यूँ ही एक दिन वहां से गुजरे तो पगली का पेट फिर समतल था. नज़रें मिली. इस बार पगली मुस्कराई नहीं.</p>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-78078038023475788552015-05-13T02:24:00.000-07:002015-05-13T02:24:00.657-07:00कविता <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लेखक यानी वो जो अपने विचारों उद्गारों को लेखनी व शब्दों के माध्यम से कागज़ पे उतार दे. लेखन अक्सर एक प्रोफेशन या एक शौक, या कभी कभी दोनों हो सकता है. मगर कवि कोई भी हो सकता है. कविता तो एक चश्मा है ज़िंदगी को देखने का. दुनिया को चखने का एक तरीका. एक आदत. एक जीवनशैली. फिर कवि के पास कागज़ या समय हो न हो, उसने वोकेबुलरी की दौलत कमाई हो या नहीं, कविता को उस से कोई नहीं छीन सकता. वो खुद भी नहीं. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-77532227758632664772015-03-31T23:58:00.002-07:002015-04-01T00:03:29.889-07:00the importance of being a fool, earnestly<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
I think I will put on that T-shirt. The bright yellow one with a hood and purple patchwork. The butt-ugly but well worn-in one.<br />
<br />
Fall in love again. This time for real. With the right one. Or the same old one.<br />
<br />
I think I will pack all that I have. Should fit in one travel bag. Up and leave. Visit somewhere I've never been. Nowhere safe.<br />
<br />
Or learn a new skill. Master a new trade. Seek a new job. Found a new shop. Find a new hobby.<br />
<br />
I think I'll never learn.<br />
<br />
I think I'll just walk off. The sun warming my back. Face north-westwards. Just so. Heed the mountains' hushed call. Land ho.<br />
<br />
Walk off that cliff. Like Wile E. Coyote. And keep walking.<br />
<br />
I think I will pick a white rose. Pin it on my hat. All dandy like.<br />
<br />
Let my dog come along. If it chooses to. Silly dog.<br />
<br />
I think I'll stay a fool. For a day. For ever.<br />
<br />
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-GUbp_47oqgo/VRuX8bIsroI/AAAAAAAAi9M/YOLZ4J_z5jk/s1600/modern_tarot__the_fool_by_teman-d6pwe1q.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-GUbp_47oqgo/VRuX8bIsroI/AAAAAAAAi9M/YOLZ4J_z5jk/s1600/modern_tarot__the_fool_by_teman-d6pwe1q.png" height="640" width="387" /></a></div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-33470970745838572632015-03-23T01:16:00.001-07:002015-03-23T01:36:28.035-07:00भगत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ये ऐसा ही चला आ रहा है. पिछले सौ सालों से, पिछले हज़ार सालों से, कई सदियों से, हमेशा से. ये ऐसे ही चलेगा. बदल ही नहीं सकता. और अगर बदल दें तो, हम बेनामी, सरफ़िरे, अव्यवहारिक, अहमक युवा? यानी क्रांति.<br />
<br />
हर कोई आज़ाद हो तो कुछ नहीं हो सकता. लोगों को एकजुट करने के लिए, प्रगति के लिए, सबकी सम्पन्नता के लिए, ये ज़रूरी है कि हम आजादी की तिलांजलि दें. पूरी नहीं, बस थोड़ी. कुछ आवाजों को तो दबाना ही होगा. ज़रूरी है. भरोसा करो उनपे जिनको बागडोर दी है. कुछ समय दो. सवाल मत पूछो. <br />
<br />
आज़ादी- सोचने की, अपनी बात को खुल कर कहने की. जब होती है तो नज़र नहीं आती. पर न हो तो? खुद ही गिरवी रख दी हो तो, कुछ पाने के लालच में? भीड़ का हिस्सा बनने के लालच में? कब ये चिड़िया एक समाज, एक देश के हाथ से निकल कर किसी शक्तिपूजक के पिंजरे की कैदी हो जाए, क्या पता. <br />
<br />
कैसे उस छोकरे ने इस चिंगारी से आजादी के आईडिया को अपने दिल से लगाया होगा और इतनी हवा दी होगी कि वो धधक धधक कर सब लील गया. एक साधारण युवा मन के सपने, परिवार, प्रेम, और सर्वोपरि- जीजिविषा. यानी किसी भी कीमत पर जीवित रहने की उत्कट इच्छा. कुछ बचा तो उसकी हठ. जैसे गुरुद्वारे का केसरिया झंडा कोसों दूर से दिखता है, जैसे आग की लपटें आसमान को झुलसा देती हैं. वो फांसी चढ़ कर एक लीजेंड बन गया. एक सवाल. एक जवाब. जो वक़्त के साथ धूमिल न हो के, और जलाता है, और जलता है, और चमकता है. <br />
<br />
<div>
राम का नाम लें पर सहिष्णुता, करुणा, मर्यादा को धता बता दें. भगत सिंह की बात करें और उस के विचारों को घोल के पी जाएँ, ये कुछ ठीक नहीं.<br />
<br />
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले</div>
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वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा</div>
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Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-13814778646135205192015-01-21T09:32:00.000-08:002015-01-21T09:42:07.139-08:00enter sandman to neverwhere (an author profile and book review of sorts)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
Neil Gaiman is the quintessential YA author. Perhaps best known for his cult Graphic Novel series The Sandman, Neil thrives fabulously in the ADD fuelled YA universe. It’s a universe (or is it multiverse?) that exists only partially in reality, while the other half dangles precariously from the fragile strands of dreams. He appears more like a carefully disheveled rock star than a fiction writer. He dabbles with equal ease in media as diverse as comic books, animation, novels, novellas, long stories, short stories, audio books, radio, television and movies. He’s not only a social media enthusiast but goes on to embrace it by interacting with his considerable fan base through his blog and twitter handle. Hell, he’s even married to a neo-feminist-punk-folk-goddess and erstwhile viral sensation Amanda Palmer. And he likes cats. So perhaps, you have to co-habit this half-real, half-virtual world with Neil Gaiman to appreciate him in his entirety. You have to understand that his idols and characters don’t just hail from literary classics but also from the DC and Marvel Universes. You have to accept that he not only cross-references Anglo-Saxon-Irish-Nordic gods and ancient folklore monsters but also gaudily clad superheroes. He’s a mash-up magician, a crossover cook, and I bestow these titles in the most well meaning way. Essentially, there are no boundaries whatsoever in Neil’s carefully crafted phantasm. Once you have assimilated this about Neil, off we go, down the rabbit hole and into a world where gods, monsters, monster-gods and god-monsters, heroes, superheroes and humans of all shapes and sizes jostle for your dreams and nightmares.<br />
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You could enter this world through many doors, the most obvious being graphic novels, short story collections and novels-or-novellas. I personally recommend Neverwhere, a creation that you may consume as a television series which was then adapted into a novel, and then adapted into a comic book by the legendary Mike Carey (of ‘Lucifer’ fame). Let’s talk about the novel here.<br />
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Neverwhere draws heavily from Alice in Wonderland and the Narnia series in terms of plot structure. But trust me, these are only springboards to leap from. From there, he takes you upon a dark and twisted fairytale journey that’s all his own. The female protagonist is literally called ‘Door’ and, perhaps a tad predictably, acts as a doorway between the modern day London, and a fantastic underground that mirrors and distorts the city above ground. This sub-London is populated by hobos and the forgotten who have fallen through the cracks of the real world, along with several bizarre and quirky characters like the sinister rat-chewing duo of Mr. Croup and Mr. Vandemar, the Rat speakers, the Marquis, the Hunter and the Angel Islington. This world of Neil is characterized by a dark, twisted and vividly visual imagination. You could also count on a deceptive simplicity that appears like a fairytale on the surface but is richly layered with a million hues and textures. Personally, I find the pacing racy, but I guess it may take some acclimatization to the weird crossover universe that Neil hails from. The plots are held together by a gossamer-light dream-logic that quickly evaporates under the harsh sunlight of reason and rhyme. However, the verbal images hit you at a gut level and stay there permanently, expanding and mutating your dream topography forever. If that sounds appetizing to you, I welcome you to the Sandman’s domain. May the American Gods watch over you.<br />
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<a href="http://3.bp.blogspot.com/-HauiKKNkrWg/VL_klmieqII/AAAAAAAAiu0/M2Vr9DLyRJc/s1600/Neil-Gaiman-3-Sm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-HauiKKNkrWg/VL_klmieqII/AAAAAAAAiu0/M2Vr9DLyRJc/s1600/Neil-Gaiman-3-Sm.jpg" height="400" width="266" /></a></div>
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<a href="http://1.bp.blogspot.com/-p2H3-uSSL6c/VL_klJJtV3I/AAAAAAAAiuw/GyBW9jh3awg/s1600/Neil-Gaiman-Sandman.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-p2H3-uSSL6c/VL_klJJtV3I/AAAAAAAAiuw/GyBW9jh3awg/s1600/Neil-Gaiman-Sandman.jpg" height="226" width="400" /></a></div>
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<a href="http://1.bp.blogspot.com/-w9Rbo4QSFns/VL_klI86hrI/AAAAAAAAiu4/T_7gO8lT0D0/s1600/neverwhere.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-w9Rbo4QSFns/VL_klI86hrI/AAAAAAAAiu4/T_7gO8lT0D0/s1600/neverwhere.jpg" height="400" width="247" /></a></div>
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<a href="http://1.bp.blogspot.com/-LoS-mzkBl98/VL_knSPSQvI/AAAAAAAAivE/tJbi_QIw8ws/s1600/neverwhere_characters_by_algesiras-d66iydd.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-LoS-mzkBl98/VL_knSPSQvI/AAAAAAAAivE/tJbi_QIw8ws/s1600/neverwhere_characters_by_algesiras-d66iydd.jpg" height="140" width="400" /></a></div>
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Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-57204505959367298222014-12-08T22:48:00.004-08:002014-12-08T22:54:25.293-08:00बूट पॉलिश, हरिओम शरण और मेरे पापा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जब कभी बच्चों की स्कूल यूनिफार्म के काले जूते पॉलिश करता हूँ तो अनायास खुद का बचपन याद आ जाता है. शायद सन 1979-80 के करीब की बात रही होगी. मैं 5 या 6 साल का था. हम कनखल की एक पुरानी हवेली में किराए पे रहते थे, गंगा से यही कोई 100 फीट की दूरी पर. घर के सामने घर से भी बड़ा आंगन था, लाल ईंटों के पैटर्न वाला, जो कमरों से ज़्यादा काम आता था. जब हम सुबह सुबह तैयार होते थे तो आकाशवाणी पर भजन चल रहे होते थे. उस समय भजन सम्राट हरिओम शरण 'श्री राधे गोविंदा भज ले, हरि का प्यारा नाम है' और 'श्री रामचंद्र कृपालु भज मन शरण भवभय दारुणम' जैसे लोकप्रिय भजनों के दम पर एयरवेव्स पर एकछत्र राज करते थे. पापा हमारी यूनिफार्म तैयार करते थे, जूते चमकाते थे (पहले BRO के GREF में होने की वजह से उनकी आदतें आज भी थोड़ी फौजीनुमा हैं) और फिर एक हाथ से हमारे दोनों गाल पकड़ दूसरे हाथ से अपनी रीढ़ सी सीधी मांग निकालते थे. फिर हम (बैकपैक नहीं) बस्ता टाँगे नुक्कड़ पे बया के घोंसलों से लकदक लदे पेड़ के नीचे जा खड़े होते थे. उस नुक्कड़ पे चाय की दुकान चलाने वाला रमेश ही हमारा रिक्शाचालक भी हुआ करता था.<br /><br />अपने पापा से सभी प्यार करते होंगे पर मेरे पापा सचमुच कुछ ख़ास हैं. (थोड़ा शर्मिन्दा हो) सच कहूँ तो आज भी जब पापा साथ होते हैं तो मेरे बच्चों यानी पोता पोती के जूते खुद ही चमकाना पसंद करते हैं.</div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-43683741291087391322014-12-03T03:05:00.001-08:002014-12-03T03:05:10.028-08:00हिन्दू vs. मुस्लिम नहीं कट्टरवाद vs. उदारवाद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आजकल मेरे देश में कट्टरवाद की गरम हवा जोर शोर से चल रही है. कट्टरवाद यानी वो सोच जिसके चलते दूसरी सोच रखने वाले की कोई जगह न हो. उसे काफ़िर, अधर्मी, मलेच्छ, नरकगामी आदि करार दे दिया जाए, चाहे बात धर्म की हो, जेंडर की या सेक्सुअल प्रेफेरेंस की.<br /><br />इस मौसम के चलते आजकल गाहे बगाहे किसी न किसी से इस बात पर ठन जाती है कि यदि आप कट्टर हिंदुत्व का विरोध करते हैं तो कट्टरवादी मुस्लिमों के विरोध में कुछ क्यों नहीं कहते? (साथ में अक्सर- "बस फट गयी मिस्टर sickular libtard" का तमगा भी मिलता है.)<br /><br />बात पूरी गलत भी नहीं. मेरे पास आंकड़े तो नहीं पर किसी हद तक ये सच लगता है कि मुस्लिम कट्टरवाद ने दुनिया भर में मेनस्ट्रीम इस्लाम की जगह हथिया ली है. उदारवादी मुस्लिम कम दिखते हैं. कभी न कभी उदारवादी मुस्लिमों को कट्टरपंथ और उस से जुडी बुराइयों के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करके इस्लाम की इमेज को सुधारने का काम करना ही होगा. खैर, ये उनकी समस्या है. मेरे लिए ये मुद्दा है ही नहीं.<br /><br />ये एक यूनिवर्सल सत्य है कि जैसे जैसे इंसान की जानकारी और एक्सपोज़र बढ़ता है, उसके भीतर का कट्टरवाद स्वयं ही कम होता है और उदारवाद बढ़ता है. वो विभिन्न तरह के लोगों को देखता और समझता है तो उन्हें उनकी विभिन्नता के साथ स्वीकार करना भी सीखता है. असल में मुझे तो लगता है कि किसी भी तरफ से चलो एक न एक दिन दिमाग को धर्म की बैसाखी छोड़ आगे बढना ही होगा.<br /><br />मेरा मुद्दा ये है कि जिस हिंदु धर्म में मैं पल के बड़ा हुआ वो काफी उदारवादी था. हमारे धर्मग्रन्थ केवल हमारे सर पर नहीं बैठते थे, वे हमारे खून में बहते थे. यहाँ तक कि हम तो अपने भगवानों पर चुटकुले भी बना-सुना लेते थे. यही वजह थी कि नास्तिक होने पर भी मैं अपनी पहचान हिन्दू ब्राह्मण ही मानता था. मेरे वाले हिंदु धर्म में हर विचारधारा और जीवनशैली के साथ हिंदु बने रहने का स्कोप था. यही इसकी खासियत थी, यही उसकी महानता थी. पर अब कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है कि हिन्दुओं में भी कट्टरपंथ मेनस्ट्रीम बन रहा है. कुछ दिनों से मेरे धर्म पर छोटे फॉण्ट में 'कंडीशंस अप्लाई' लिखा जाने लगा है. सही कहूँ तो इस के चलते हिन्दू धर्म की महानता बढ़ नहीं घट रही है. कट्टरवाद का विरोध तो उदारवाद से होना चाहिए. वरना हिन्दू धर्म भी कट्टरवादी मुस्लिमों से कुछ अलग नहीं रहेगा. बाकी आपकी मर्जी.</div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-56117813015697649122014-11-24T18:18:00.004-08:002014-11-24T18:53:16.205-08:00Dogear<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कॉमन सेंस कहती है कि याद उस अनुभव को बनना चाहिए जिसमें कुछ खासियत हो. पर ये गलत है. ज़रा सोच के देखिये, खासियत तो तभी नज़र आती है जब आप पीछे मुड़ के देखते हैं, जब आपके पास अतीत के निरीक्षण को एक ऊंची और न्यूट्रल ज़मीन हो. जिस समय आप इसे जी रहे होते हैं तब थोड़े ही पता होता है कि गुजरता समय इस अनुभव को खासियत का तमगा दे देगा. हाँ ठीक है कि ख़ास तीखे मीठे अनुभव अक्सर याद रह जाते हैं, पर ये सच नहीं कि जो याद आये वो हमेशा ख़ास ही हो. मुझे तो ऐसा लगता है कि यादों का कैमरा रैंडम क्लिक मारता है. अमूमन मैं जब भी आँखें बंद करता हूँ मुझे कनखल की खडंजे के पैटर्न वाली छत और एक पतंग याद आती है. क्यों? पता नहीं. इस अनुभव में ख़ास होने लायक कोई भी बात नहीं. फिर भी ऐसा लगता है कि यादों की किताब का ये पन्ना मोड़ कर डॉग-इयर कर दिया गया हो.</div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-31781362029049947292014-11-24T00:24:00.002-08:002014-11-24T00:24:36.230-08:00सोफा कुर्सी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरे घर में एक सोफा कुर्सी है. देखने से साफ़ जाहिर होता है कि अपने हिस्से का वक़्त गुज़ार चुकी है और अब एक्सटेंडेड टेन्योर में है. सच तो ये है कि ली भी बड़े सस्ते में थी. पॉलिश जगह जगह से उतर गयी है, जोड़ दिखाई देने लगे हैं, एस्थेटिक्स को खटकने लगी है. मगर जालिम आज भी आरामदेह इतनी कि बैठो तो उठने का मन ना करे. अब सवाल ये है कि ऐसी कुर्सी का किया क्या जाए.</div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-25259986663447067442014-11-04T17:28:00.002-08:002014-11-04T17:28:58.325-08:00खामोशी के प्रकार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दुनिया में कई तरह की खामोशी पाई जाती है. बाईस तेईस प्रकार तो औरांग खुद गिन चुका है. जैसे वो जो कोई भारी चीज़ ड्रैग कर के ऊपर ला रही है, थक कर पल दो पल रुकती है कभी, सीढियां ख़तम ही नहीं होतीं. या वो खामोशी जो काली दीवारों वाले अँधेरे कमरे में काले कपडे पहने, भ्रूण की तरह खुद को सिकोड़े, सर घुटनों में घुसाए लेटी है, आँखें बंद किये जाग रही है, सालों से. या फिर वो खामोशी जो किसी हिल स्टेशन के लवर्स पॉइंट पर बैठी है, अकेली, टाँगे बाहर लटकाए, कोहरे में डूबी वादी दूध की झील सी दीखती है. एक खामोशी वो भी है जो बिस्तर में लेटी है, दूसरी खामोशी का हाथ थामे, शब्द बिस्तर के पायताने पे खुले बिखरे पड़े है. और वो खामोशी जो अनजान शहर में टहल रही है, ओवरकोट की जेब में हाथ घुसाए, कौलर चढ़ाए, दुकानों और घरों की खिडकियों को आँखों से टटोलती. औरांग एक डायरी में इन सब खामोशियों के नाम दर्ज़ कर रहा है, खामोशी से. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-52185162678866081762014-10-21T04:44:00.000-07:002014-10-21T04:44:12.052-07:00कोलतार का कारखाना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक कोलतार का कारखाना है.<div>
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नाम 'औरांग अधूरी-ख्वाहिश लिमिटेड'. कभी ओवरफ्लो करे तो सगरे शहर में फ़ैल जाता है कमबखत. जूतों में चिपकने लगता है, मन का हर कदम एक-एक मन सा भारी. चिंगारी पकड़ ले तो आग पहन लेता है, काला कसैला धुंआ ऐसे उठता है जैसे आहें. आँखों में चुभती हैं, पानी निकलता है.<div>
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एक कोलतार का कारखाना है दिलनगर में. </div>
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Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-38771094393150111222014-10-13T00:08:00.002-07:002014-10-13T00:25:34.683-07:00औरांग मंत्री <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
औरांग को बचपन से खुद को कलफ-इस्त्री कर रखने की आदत है. वो चलते समय गर्दन, कुहनियाँ और घुटने लीक से सीधे रखता है. औरांग मुड़ने में कतई यकीन नहीं रखता, यू-टर्न से तो उसे सख्त नफ़रत है. उसका हेमा मालिनी से चिकने गाल वाले भगवान पर सच्चा अटल विश्वास है. इस विश्वास के बारे में सवाल-जवाब या तर्क-वितर्क उसको रत्ती भर बर्दाश्त नहीं. औरंग को केवल शुद्ध शाकाहारी चुटकुले भाते हैं. वो सिर्फ गोरे पुरुषों की बात पर विश्वास करता है. औरंग ने आज तक बत्ती जला के कपड़े नहीं उतारे. उसे मात्र अपने गोत्र, वर्ण, धर्म, भाषा और राष्ट्र पर गौरव ही नहीं, बल्कि हर दूसरे गोत्र, वर्ण, धर्म, भाषा और राष्ट्र से एक स्वस्थ घृणा भी है. औरांग पक्का चुनाव जीतेगा.</div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-56628313763624057972014-10-09T23:16:00.002-07:002014-10-09T23:16:15.110-07:00चश्मे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
औरांग को बचपन से ही चश्मे पहनने का शौक़ रहा है, आँख पे भी, कान पे भी, और कभी कभी तो ज़ुबान पे भी. सियाही में भीगे कागज़ के चश्मे, सुरों में भिगायी हवा के चश्मे, लाल नीली पन्नी के चश्मे, रंगीन चाशनी के लम्बे रिब्बन्स में लिपटे चश्मे, बुढ़िया के बालों में उलझे चश्मे. नए चश्मे, टूटे चश्मे, पीतल के चश्मे, प्लास्टिक के चश्मे. ऐसे चश्मे जो रोते है, आंसूं टपकाते हैं, ऐसे चश्मे जो गाहे बगाहे गुनगुनाते हैं, ऐसे चश्मे जो कहानियाँ सुनाते हैं. अंग्रेज़ी चश्मे, हिन्दी चश्मे, उर्दू चश्मे, स्पेनिश और रशियन से अनुवादित चश्मे. जो पूरी ज़िंदगी केवल एक चश्मा पहन के निकाल रहा हो, उस पे औरांग को बड़ा तरस आता है. उस का मानना है कि नज़रिया साफ़ रखने के लिए चश्मे बदल बदल के पहनना निहायत ज़रूरी है. वरना दुनिया तो वही है, बदरंगी, कदम कदम पे उलझती है. चश्मे बदल के देखो, तभी तो सतरंगी सुलझती है. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-12454248592011051602014-10-09T22:13:00.001-07:002014-10-09T22:13:19.651-07:00दो दो चचा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कल शाम जागर सुन रहा था. जागर यानी उत्तराखंड में संगीतमय कथावाचन के द्वारा पहाड़ों के सुप्त देवताओं को जगाने की प्रथा. <br /><br />सुबह गुलज़ार और जगजीत सिंह का 'तेरे बयान ग़ालिब' सुना तो लगा ये भी एक तरह का जागर ही तो है. ग़ालिब की चिट्ठियां, ग़ालिब के किस्से, ग़ालिब की कलमकारी गुलज़ार की जुबानी सुन के ऐसा लगा दोनों चचा गाड़ी में बगल में बैठे जलेबी सी लच्छेदार बातें तल रहे हों. अच्छा हुआ गुलज़ार चचा ग़ालिब के पैगम्बर बन गए, वरना हम कैसे पहचान करते चचा ग़ालिब से, उनकी नीमतल्ख़ नीम-मीठी कलम से, मौत और ज़िंदगी से उनकी तीनतरफ़ा आशिक़ी याने लव ट्रायंगल से, दोज़ख-बहिश्त के बीच की चौखट पे रखी उनकी आरामकुर्सी से, आम और ज़ाम से उनकी ज़बरदस्त मोहब्बत से. <br /><br />शुक्रिया गुलज़ार चचा, जब आप के सर पे चचा ग़ालिब चढ़ के बोलते हैं तो कसम से आपसे हमारा प्यार भी और परवान चढ़ जाता है. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-40024933602917222252014-10-09T01:47:00.002-07:002014-10-09T02:36:37.839-07:00चितकबरे मंसूबे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
औरांग की नीयत सुफ़ेद है, क़िस्मत काली, और मंसूबे चितकबरे. उसकी आँखें हल्की भूरी हैं. औरांग के कपड़ों पे नायलोन का मुलम्मा चढ़ा है, और पंखों पे तांबे के तार लिपटे हैं. उसे आप अक्सर शहर के किसी नीम-सुनसान मॉल में अकेला मुस्कराता गुनगुनाता घूमता पायेंगे, कभी मसाला कॉर्न फांकता, कभी खिडकियों में झांकता, कभी तितलियों को ताकता. औरांग को विरासत में सतरंज के प्यादे सी आत्मघाती वफादारी मिली है, बरसाती मेंढक सा बरसात ख़तम होने की चिंता से अछूता उत्साह, बौलीवुड के विलन सा वेलापन और सपरेटा दूध में भीगे चेतन भगत ब्रांड के कॉर्न फ्लेक्स सा हल्कापन. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-55735793707325061772014-10-08T09:23:00.000-07:002014-10-08T09:23:22.156-07:00हैदर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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'हैदर' के बारे में इतना कुछ कहा जा चुका है कि अब कुछ नया कहना नामुमकिन है. फिर भी बंदा आदत से मजबूर है. विशाल जी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता. वो अच्छे कलाकार हैं इस पर मुझे कोई शक नहीं. पर फ़िल्म एक काम्प्लेक्स और प्रयोगात्मक माध्यम है. ये प्रयोग हर बार सफल होना संभव नहीं. और हाँ, मुझे शेक्सपियर के बारे में कुछ ख़ास नहीं पता इस लिए मैं केवल हैदर पे टिप्पणी करूंगा. </div>
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सिनेमा एक जादू के स्पेल यानी इंद्रजाल की तरह है. यदि आप इसे देखते हुए अपने नज़रिए को ससपेंड ना कर पाएं, कहानी को कहानीकार के नज़रिए से ना देख पाएं तो मतलब फिल्म चूक गयी. और इसके लिए फिल्म का रीयलिस्टिक होना कतई जरूरी नहीं. हैदर इस लिटमस कसौटी पर बिलकुल खरी नहीं उतर पायी.</div>
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ऐसा नहीं कि हैदर में कुछ भी ठीक नहीं, पर कुल मिला के मुझे हैदर काफी औसत दर्जे की फिल्म लगी. हैदर को एक पोलिटिकल स्टेटमेंट मानना भूल होगी. ये कश्मीर के पटल पे रचा एक ह्यूमन ड्रामा है. ज्यादा से ज्यादा ये आज़ाद कश्मीर के हिमायतियों को समझने की एक अनमनी और असफल सी कोशिश है, बस. नैरेटिव काफ़ी fractured और jerky है क्यूँ कि इस पर विपरीत दिशाओं से काफ़ी दबाव और खिंचाव हैं. एक तरफ शेक्सपियर तो दूसरी तरफ कश्मीर. एक तरफ़ कुछ कहने की चाहत तो दूसरी तरफ़ कुछ जस्टिफाई करने की कोशिश. मेटा-नैरेटिव अक्सर नैरेटिव पे इतना हावी हो जाता है कि कथानक असलियत का धरातल छोड़ देता है. मजेदार बात ये है कि फिल्म के सबसे प्रभावशाली हिस्से फिल्म के बजाय थिएटर मीडियम के ज्यादा करीब हैं. शाहिद के अभिनय में अभी परिपक्वता नहीं है. वो अपनी खाल से बाहर नहीं निकल पाता है. आखिर तक सिर्फ़ शाहिद ही रहता है, हैदर नहीं हो पाता. सौ बात की एक बात ये कि कहानी खाल के अन्दर नहीं समा पाती, ट्रांसेंड नहीं हो पाती.</div>
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ये तो रही बात फिल्म की. अब बात करें फिल्म के आसपास की राजनीति की, 'बायकाट हैदर' के होहल्ले की. पहली बात तो लानत है उन लोगों पर जो किसी अभिव्यक्ति को दबाना चाहते हैं. ये लोग भारतीय लोकतंत्र के असली दुश्मन हैं. बच्चा हो या जिहादी, जब तक उसे समझोगे नहीं, तो समझाओगे कैसे? हाँ, ये समझना-समझाना बन्दूक हाथ में लेकर नहीं हो सकता. बन्दूक हाथ में लेकर बस लड़ाई होती है और लड़ाई में जीतना एक मजबूरी. मारो, नहीं तो मारे जाओगे, इस तर्क को काटना बहुत मुश्किल है. और ये बात फिल्म में भी काफ़ी साफ़ तौर से कही गयी है. </div>
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Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-8315610280669973062014-10-08T00:21:00.000-07:002014-10-08T00:21:36.216-07:00औरांग की कॉपी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अक्टूबर का महीना. गर्मी अपनी पोस्ट छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही है. सर्दी अपनी बारी के इंतज़ार में थक कर चौखट पर बैठ गयी है. औरांग अपनी राइटिंग टेबल पर बैठा है. खिड़की से होली के दिन गिनता एक नंगा टेसू का पेड़ भीतर झाँक रहा है. पीली किनारियों वाली आँखें लिए काला गरुड़ चौकन्ना हो चकर-बकर देख रहा है. सामने कॉपी खुली पडी है. औरांग जब खाली पन्ने को देखता है तो उसे लगता है वो फिल्म वाले पाई की तरह एक छोटी सी डोंगी में बैठा है, महासागर के बीचों बीच. किस तरफ खेना शुरू करे, जो ये नक्शहीन अनंत विभक्त हो जाए- आगे और पीछे में, दायें और बायें में, आगाज़ और अंजाम में. वो कलम को पतवार बना के खेना शुरू करता है. पन्ने पे रिपल्स उभरने लगते हैं. काई थोड़ा कांपती है, फ़िर रास्ता छोड़ देती है. </div>
Manish Bhatthttp://www.blogger.com/profile/04997744740964640385noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7650984.post-13734246194977965232014-09-29T00:11:00.001-07:002014-11-04T17:32:31.614-08:00बेतुकी बटुकी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बटुकी बतखी ने एक बेतुकी बात कर ही डाली. बतखेश्वर ने उसे अमूल के मख्खन सी सुचिक्कन सुनहरी काया दी थी और सिरेमिक के चम्मच सी चपटी चोंच. जब जब वो चोंच से अपनी कांख खुजाती तो नर बतखों के दिल जोर जोर से बतखने लगते थे. मगर श्री बतखेश्वर ने ना जाने उसकी उँगलियों के बीच एक बदसूरत सी झिल्ली क्यूँ लगाई थी. जब जब वो जमीन पे चलती तो उसे ऐसा लगता कि नर बतख उसकी कामुक इतर-बितर चाल ना देख कर उसके भौंडे पैर देख रहे हैं. और ये सोच कर उसकी आँखों से नमकीन शिकंजी से आंसू गिरने लगते. तो उसने फैसला किया कि अब वो लौट के ज़मीन पर ना आयेगी, अपना सारा समय पानी में ही बिताएगी, अपने झिल्लीदार पैरों के चप्पू पानी के नीचे ही चलाएगी. </div>
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मैं अपने सिल्वर एलुमिनियम जामे को देखता हूँ. फ़िर दूर अधर में टंकी चमकीली गेंदों को देखता हूँ. एक विशाल डिस्कोथेक के फर्श पर मैं अकेला खडा हूँ. लोग नाच कर, थक कर, घर जा चुके हैं. संगीत बंद हो चुका है. बत्तियां बुझा दी गयी हैं. डीजे कौन रहा होगा? <div>
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यहाँ अब कोई आवाज़ सुनायी नहीं देती. मुझे पता नहीं था कि तापमान की तरह आवाज़ की मात्रा भी शून्य से नीचे गिर सकती है. क्या किसी चीज़ की अनुपस्थिति के भी मापदंड होते हैं? क्या खामोशी और अँधेरा मापने की इकाई होती है? मुझे यक़ीन है इस खामोशी को सुना, नापा जा सकता है.</div>
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यहाँ चार नहीं, दस भी नहीं, अनगिनत दिशायें हैं. न सुबह, न रात, न पहर, न घड़ियाँ. हर वक़्त, हर दिशा में फैला सिर्फ़ गाढ़ा सियाह अँधेरा. और उस गाढ़ी सियाही पे रोशनी के कुछ महीन छेद.</div>
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मैं जहां से निकला था, जिस ज़मीन के उफ़क़ को मैंने सीधी रेखा से वक्र और फिर पूरा गोला बनते देखा था, वो अब बस एक और रोशनी का छेद है जो बाकी रोशनी के पिनहोल्स के बीच खो चुका है. अब पहचानना मुश्किल है. वापस लौटना असंभव. क्या अब भी वहां कोई होगा? </div>
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पता नहीं और कितना वक़्त मुझे तैरना है इस सियाही में. मैं तैर भी रहा हूँ या रुक गया हूँ इस अनंत में? कौन बतायेगा? अकेले में सापेक्षता का क्या औचित्य?</div>
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बस इतना याद है कि एक दिन मुझे उतरना है एक अनजान लाल पथरीली ज़मीन पर.</div>
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मैं मंगलयान हूँ.</div>
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