औरांग के घर की दीवारें मांस की थी. गीली, गुलाबी और गिलगिली. वो कोई नुकीली चीज़ घर नहीं ला पाता था. ज़रा सा चुभते ही दीवारों से गाढ़ा काला खून रिसने लगता था. फिर ज़ख्म भरते हफ्ता दस दिन लग जाते थे. जब तक पपड़ी उतर ना जाये, अलमारी या फ्रिज से ढक कर रखना पड़ता था. घर पे नंगे पैर चलो तो तलवे चिपचिपे हो जाते थे. सामानों को खिसकाते रहना पड़ता था ताकि एक जगह रखने से दाग ना पड़ जायें. फ़िर पता नहीं क्यों अचानक उसे सींगों पे जंग खाया लोहा मढ़ने का शौक़ लग गया. अब वो घर आने से बचने लगा. देर रात तक दोस्तों के घर बैठता था, और अगर कोई हलके से भी रुकने का आग्रह करे तो फ़ौरन मान जाता था. अब घर बदला भी तो नहीं जा सकता था. बाप दादाओं का घर था, और उन्होंने हिदायत करी थी कि इस घर को वो अपना न समझे. ये तो आने वाली नस्लों की धरोहर है. देखभाल करे और वक़्त आने पर दाखिल-खारिज करा के चुपचाप अगली नसल को हस्तारंतित कर दे. पर जंग खाया लोहा मढ़े सींग रखने का शौक़ उसका खालिस अपना था. गोया हालत ये हो गयी कि बचते-बचाते भी उसके सिरहाने के तरफ की दीवार पे एक ज़ख्म पड़ ही गया, और अक्सर कुरेदे जाने से नासूर में बदल गया. उसने बीटाडीन भी लगाई पर ख़ास असर न हुआ. धीरे धीरे उस नासूर से सडांध उठने लगी. सडांध की बेल बढ़ते बढ़ते उसकी अधनीन्दों के अधकच्चे सपनों में दखलंदाजी करने लगी. एक दिन वो सपने में फैशन शो देख रहा था जिसमें उसकी पसंदीदा हीरोइन रैंप पे ठुमकती चली आ रही थी . तभी एक कलफ़ लगा वेटर कैपुचिनो ले कर आया. औरांग ने मुस्करा के थैंक्स कहा, और जैसे ही कप मुंह से लगाया तो उस में खून वाला पस भरा था. हीरोईन मुंह बिचका के काफूर हो गयी. आँख खुली तो वही गीली, गुलाबी और गिलगिली दीवारें.
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