जब कभी बच्चों की स्कूल यूनिफार्म के काले जूते पॉलिश करता हूँ तो अनायास खुद का बचपन याद आ जाता है. शायद सन 1979-80 के करीब की बात रही होगी. मैं 5 या 6 साल का था. हम कनखल की एक पुरानी हवेली में किराए पे रहते थे, गंगा से यही कोई 100 फीट की दूरी पर. घर के सामने घर से भी बड़ा आंगन था, लाल ईंटों के पैटर्न वाला, जो कमरों से ज़्यादा काम आता था. जब हम सुबह सुबह तैयार होते थे तो आकाशवाणी पर भजन चल रहे होते थे. उस समय भजन सम्राट हरिओम शरण 'श्री राधे गोविंदा भज ले, हरि का प्यारा नाम है' और 'श्री रामचंद्र कृपालु भज मन शरण भवभय दारुणम' जैसे लोकप्रिय भजनों के दम पर एयरवेव्स पर एकछत्र राज करते थे. पापा हमारी यूनिफार्म तैयार करते थे, जूते चमकाते थे (पहले BRO के GREF में होने की वजह से उनकी आदतें आज भी थोड़ी फौजीनुमा हैं) और फिर एक हाथ से हमारे दोनों गाल पकड़ दूसरे हाथ से अपनी रीढ़ सी सीधी मांग निकालते थे. फिर हम (बैकपैक नहीं) बस्ता टाँगे नुक्कड़ पे बया के घोंसलों से लकदक लदे पेड़ के नीचे जा खड़े होते थे. उस नुक्कड़ पे चाय की दुकान चलाने वाला रमेश ही हमारा रिक्शाचालक भी हुआ करता था.
अपने पापा से सभी प्यार करते होंगे पर मेरे पापा सचमुच कुछ ख़ास हैं. (थोड़ा शर्मिन्दा हो) सच कहूँ तो आज भी जब पापा साथ होते हैं तो मेरे बच्चों यानी पोता पोती के जूते खुद ही चमकाना पसंद करते हैं.
अपने पापा से सभी प्यार करते होंगे पर मेरे पापा सचमुच कुछ ख़ास हैं. (थोड़ा शर्मिन्दा हो) सच कहूँ तो आज भी जब पापा साथ होते हैं तो मेरे बच्चों यानी पोता पोती के जूते खुद ही चमकाना पसंद करते हैं.
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