23.3.15

भगत

ये ऐसा ही चला आ रहा है. पिछले सौ सालों से, पिछले हज़ार सालों से, कई सदियों से, हमेशा से. ये ऐसे ही चलेगा. बदल ही नहीं सकता. और अगर बदल दें तो, हम बेनामी, सरफ़िरे, अव्यवहारिक, अहमक युवा? यानी क्रांति.

हर कोई आज़ाद हो तो कुछ नहीं हो सकता. लोगों को एकजुट करने के लिए, प्रगति के लिए, सबकी सम्पन्नता के लिए, ये ज़रूरी है कि हम आजादी की तिलांजलि दें. पूरी नहीं, बस थोड़ी. कुछ आवाजों को तो दबाना ही होगा. ज़रूरी है. भरोसा करो उनपे जिनको बागडोर दी है. कुछ समय दो. सवाल मत पूछो.

आज़ादी- सोचने की, अपनी बात को खुल कर कहने की. जब होती है तो नज़र नहीं आती. पर न हो तो? खुद ही गिरवी रख दी हो तो, कुछ पाने के लालच में? भीड़ का हिस्सा बनने के लालच में? कब ये चिड़िया एक समाज, एक देश के हाथ से निकल कर किसी शक्तिपूजक के पिंजरे की कैदी हो जाए, क्या पता.

कैसे उस छोकरे ने इस चिंगारी से आजादी के आईडिया को अपने दिल से लगाया होगा और इतनी हवा दी होगी कि वो धधक धधक कर सब लील गया. एक साधारण युवा मन के सपने, परिवार, प्रेम, और सर्वोपरि- जीजिविषा. यानी किसी भी कीमत पर जीवित रहने की उत्कट इच्छा. कुछ बचा तो उसकी हठ. जैसे गुरुद्वारे का केसरिया झंडा कोसों दूर से दिखता है, जैसे आग की लपटें आसमान को झुलसा देती हैं. वो फांसी चढ़ कर एक लीजेंड बन गया. एक सवाल. एक जवाब. जो वक़्त के साथ धूमिल न हो के, और जलाता है, और जलता है, और चमकता है.      

राम का नाम लें पर सहिष्णुता, करुणा, मर्यादा को धता बता दें. भगत सिंह की बात करें और उस के विचारों को घोल के पी जाएँ, ये कुछ ठीक नहीं.

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा

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