दुनिया में बहुत कुछ ऐसा है जो गरीब हो न हो, अजीब जरूर है. मानो तो ठीक, न मानो तो जैसी खुदपुरा के खुदा की मर्ज़ी. खुदा न ख्वास्ता किसी दिन आप के साथ गुज़र बैठे तो तब मान लेना, कौन सी इटावा की ट्रेन छूटी जा रही है. देखो अब कुछ ऐसा ही हुआ जकीम के साथ. झूठ बोलूं तो मेरे गलफड़े गीदड़ ले जाए. जकीम एक दिन जामिया की ज़र्दी-बिरयानी लपेट के पारक की बेंच पर धूप में बैठा अखबार चेप रहा था कि उसके पैर ज़िंदा हो गए. "सलाम भाई, अपुन दानिश दांयेला.", दांया बोला. "और अपुन बी के बांयेला", बांये ने जोड़ा. "बी के?" इस से पहले कि चौंकने की याद आती, जकीम की जुबान से सवाल कूद गया. "बिनोद कुमार बांयेला.", जवाब मिला. "सलाम", जकीम बोला. अब बात शुरू हो ही गयी तो बीच में क्या चौंकना. "कैसे आना... अर... मेरा मतलब, कैसे याद किया?"
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