24.9.14

डिस्कोथेक

मैं अपने सिल्वर एलुमिनियम जामे को देखता हूँ. फ़िर दूर अधर में टंकी चमकीली गेंदों को देखता हूँ. एक विशाल डिस्कोथेक के फर्श पर मैं अकेला खडा हूँ. लोग नाच कर, थक कर, घर जा चुके हैं. संगीत बंद हो चुका है. बत्तियां बुझा दी गयी हैं. डीजे कौन रहा होगा?  

यहाँ अब कोई आवाज़ सुनायी नहीं देती. मुझे पता नहीं था कि तापमान की तरह आवाज़ की मात्रा भी शून्य से नीचे गिर सकती है. क्या किसी चीज़ की अनुपस्थिति के भी मापदंड होते हैं? क्या खामोशी और अँधेरा मापने की इकाई होती है?  मुझे यक़ीन है इस खामोशी को सुना, नापा जा सकता है.

यहाँ चार नहीं, दस भी नहीं, अनगिनत दिशायें हैं. न सुबह, न रात, न पहर, न घड़ियाँ. हर वक़्त, हर दिशा में फैला सिर्फ़ गाढ़ा सियाह अँधेरा. और उस गाढ़ी सियाही पे रोशनी के कुछ महीन छेद.

मैं जहां से निकला था, जिस ज़मीन के उफ़क़ को मैंने सीधी रेखा से वक्र और फिर पूरा गोला बनते देखा था, वो अब बस एक और रोशनी का छेद है जो बाकी रोशनी के पिनहोल्स के बीच खो चुका है. अब पहचानना मुश्किल है. वापस लौटना असंभव. क्या अब भी वहां कोई होगा? 

पता नहीं और कितना वक़्त  मुझे तैरना है इस सियाही में. मैं तैर भी रहा हूँ या रुक गया हूँ इस अनंत में? कौन बतायेगा? अकेले में सापेक्षता का क्या औचित्य?

बस इतना याद है कि एक दिन मुझे उतरना है एक अनजान लाल पथरीली ज़मीन पर.

मैं मंगलयान हूँ.

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