बटुकी बतखी ने एक बेतुकी बात कर ही डाली. बतखेश्वर ने उसे अमूल के मख्खन सी सुचिक्कन सुनहरी काया दी थी और सिरेमिक के चम्मच सी चपटी चोंच. जब जब वो चोंच से अपनी कांख खुजाती तो नर बतखों के दिल जोर जोर से बतखने लगते थे. मगर श्री बतखेश्वर ने ना जाने उसकी उँगलियों के बीच एक बदसूरत सी झिल्ली क्यूँ लगाई थी. जब जब वो जमीन पे चलती तो उसे ऐसा लगता कि नर बतख उसकी कामुक इतर-बितर चाल ना देख कर उसके भौंडे पैर देख रहे हैं. और ये सोच कर उसकी आँखों से नमकीन शिकंजी से आंसू गिरने लगते. तो उसने फैसला किया कि अब वो लौट के ज़मीन पर ना आयेगी, अपना सारा समय पानी में ही बिताएगी, अपने झिल्लीदार पैरों के चप्पू पानी के नीचे ही चलाएगी.
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