अक्टूबर का महीना. गर्मी अपनी पोस्ट छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही है. सर्दी अपनी बारी के इंतज़ार में थक कर चौखट पर बैठ गयी है. औरांग अपनी राइटिंग टेबल पर बैठा है. खिड़की से होली के दिन गिनता एक नंगा टेसू का पेड़ भीतर झाँक रहा है. पीली किनारियों वाली आँखें लिए काला गरुड़ चौकन्ना हो चकर-बकर देख रहा है. सामने कॉपी खुली पडी है. औरांग जब खाली पन्ने को देखता है तो उसे लगता है वो फिल्म वाले पाई की तरह एक छोटी सी डोंगी में बैठा है, महासागर के बीचों बीच. किस तरफ खेना शुरू करे, जो ये नक्शहीन अनंत विभक्त हो जाए- आगे और पीछे में, दायें और बायें में, आगाज़ और अंजाम में. वो कलम को पतवार बना के खेना शुरू करता है. पन्ने पे रिपल्स उभरने लगते हैं. काई थोड़ा कांपती है, फ़िर रास्ता छोड़ देती है.
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