'हैदर' के बारे में इतना कुछ कहा जा चुका है कि अब कुछ नया कहना नामुमकिन है. फिर भी बंदा आदत से मजबूर है. विशाल जी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता. वो अच्छे कलाकार हैं इस पर मुझे कोई शक नहीं. पर फ़िल्म एक काम्प्लेक्स और प्रयोगात्मक माध्यम है. ये प्रयोग हर बार सफल होना संभव नहीं. और हाँ, मुझे शेक्सपियर के बारे में कुछ ख़ास नहीं पता इस लिए मैं केवल हैदर पे टिप्पणी करूंगा.
सिनेमा एक जादू के स्पेल यानी इंद्रजाल की तरह है. यदि आप इसे देखते हुए अपने नज़रिए को ससपेंड ना कर पाएं, कहानी को कहानीकार के नज़रिए से ना देख पाएं तो मतलब फिल्म चूक गयी. और इसके लिए फिल्म का रीयलिस्टिक होना कतई जरूरी नहीं. हैदर इस लिटमस कसौटी पर बिलकुल खरी नहीं उतर पायी.
ऐसा नहीं कि हैदर में कुछ भी ठीक नहीं, पर कुल मिला के मुझे हैदर काफी औसत दर्जे की फिल्म लगी. हैदर को एक पोलिटिकल स्टेटमेंट मानना भूल होगी. ये कश्मीर के पटल पे रचा एक ह्यूमन ड्रामा है. ज्यादा से ज्यादा ये आज़ाद कश्मीर के हिमायतियों को समझने की एक अनमनी और असफल सी कोशिश है, बस. नैरेटिव काफ़ी fractured और jerky है क्यूँ कि इस पर विपरीत दिशाओं से काफ़ी दबाव और खिंचाव हैं. एक तरफ शेक्सपियर तो दूसरी तरफ कश्मीर. एक तरफ़ कुछ कहने की चाहत तो दूसरी तरफ़ कुछ जस्टिफाई करने की कोशिश. मेटा-नैरेटिव अक्सर नैरेटिव पे इतना हावी हो जाता है कि कथानक असलियत का धरातल छोड़ देता है. मजेदार बात ये है कि फिल्म के सबसे प्रभावशाली हिस्से फिल्म के बजाय थिएटर मीडियम के ज्यादा करीब हैं. शाहिद के अभिनय में अभी परिपक्वता नहीं है. वो अपनी खाल से बाहर नहीं निकल पाता है. आखिर तक सिर्फ़ शाहिद ही रहता है, हैदर नहीं हो पाता. सौ बात की एक बात ये कि कहानी खाल के अन्दर नहीं समा पाती, ट्रांसेंड नहीं हो पाती.
ये तो रही बात फिल्म की. अब बात करें फिल्म के आसपास की राजनीति की, 'बायकाट हैदर' के होहल्ले की. पहली बात तो लानत है उन लोगों पर जो किसी अभिव्यक्ति को दबाना चाहते हैं. ये लोग भारतीय लोकतंत्र के असली दुश्मन हैं. बच्चा हो या जिहादी, जब तक उसे समझोगे नहीं, तो समझाओगे कैसे? हाँ, ये समझना-समझाना बन्दूक हाथ में लेकर नहीं हो सकता. बन्दूक हाथ में लेकर बस लड़ाई होती है और लड़ाई में जीतना एक मजबूरी. मारो, नहीं तो मारे जाओगे, इस तर्क को काटना बहुत मुश्किल है. और ये बात फिल्म में भी काफ़ी साफ़ तौर से कही गयी है.
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