9.10.14

चश्मे

औरांग को बचपन से ही चश्मे पहनने का शौक़ रहा है, आँख पे भी, कान पे भी, और कभी कभी तो ज़ुबान पे भी. सियाही में भीगे कागज़ के चश्मे, सुरों में भिगायी हवा के चश्मे, लाल नीली पन्नी के चश्मे, रंगीन चाशनी के लम्बे रिब्बन्स में लिपटे चश्मे, बुढ़िया के बालों में उलझे चश्मे. नए चश्मे, टूटे चश्मे, पीतल के चश्मे, प्लास्टिक के चश्मे. ऐसे चश्मे जो रोते है, आंसूं टपकाते हैं, ऐसे चश्मे जो गाहे बगाहे गुनगुनाते हैं, ऐसे चश्मे जो कहानियाँ सुनाते हैं. अंग्रेज़ी चश्मे, हिन्दी चश्मे, उर्दू चश्मे, स्पेनिश और रशियन से अनुवादित चश्मे. जो पूरी ज़िंदगी केवल एक चश्मा पहन के निकाल रहा हो, उस पे औरांग को बड़ा तरस आता है. उस का मानना है कि नज़रिया साफ़ रखने के लिए चश्मे बदल बदल के पहनना निहायत ज़रूरी है. वरना दुनिया तो वही है, बदरंगी, कदम कदम पे उलझती है. चश्मे बदल के देखो, तभी तो सतरंगी सुलझती है.    

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