18.8.15

औरांग का चस्का

औरांग को बचपन से ही ये चस्का लग गया था. जहां ख़याल में डीप फ्राइड चीज़ मिली, बस, उसकी तो लार बहने लगती थी. फिर वो चाहे मिसरों की चमचम वर्की चढ़ी कहानी हो, या लच्छेदार कुरकुरी नॉवल, रदीफ़-काफ़िये की चाशनी में डुबोई ग़ज़ल हो, या कानों में रेशा रेशा घुल जाने वाली नज़्म. या फ़िर नमकीन पे मीठे की पतली परत वाली कविता ही क्यों न हो, जिसको जितनी बार चखो अलग स्वाद आये. शुरू शुरू में तो औरांग नुक्कड़ की दुकान के माल से ही संतुष्ट हो जाता था. पर धीरे धीरे उसका चटोरापन बढ़ता गया. फिर एक दिन उसे चचा गुलज़ार की दुकान मिली, जहां ये सब मिलता था. वो भी कभी शुद्ध देसी उर्दू में बना तो कभी यू.पी. के अचारी हिंदी मसाले में, कभी पंजाबी में छना तो कभी अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों की बुरकन. बस वो दिन है और आज़ का दिन, औरांग आज भी घर जाते समय रास्ते में ही चचा की दुकान से कुछ न कुछ सामान पैक कराता जाता है.                          

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