8.9.15

पावलोव-श्रोडिंगर

प्यार और दुर्घटना कभी भी हो सकते हैं. और दुर्घटना से बचना तो फिर मुमकिन है. मगर प्यार से? तौबा तौबा !

तो पावलोव जी के कुत्ते को भी हो गया साहब. प्यार, वो भी कतई खूंखार. जब भी पड़ोस के श्रोडिंगर जी की बिल्ली के गले की घंटी सुनाई देती, उसकी लार टप-टप टपकने लगती. कुत्ता-बिल्ली सुन ऐसे काहे चौंक रहे हैं जी? प्यार ने कब जात-पांत, रंग-रूप, योनि-वोनी की हदों को माना है.

मगर श्रोडिंगर जी की बिल्ली बला की शर्मीली. कानों को सुनाई तो दे पर नज़र से नदारद. दिल में तो आये पर पंजों में नहीं.

तो आखिर एक दिन हिम्मत करके पावलोव जी का कुत्ता लार टपकाता, पूँछ हिलाता,घंटी की टन-टन को घात लगाता, श्रोडिंगर जी के घर जा पहुंचा. देखा तो घंटी की आवाज़ एक बक्से से आ रही थी.

कुत्ता अपने अंडकोष ठीक से चाट साफ़ कर बक्से के बगल में एक सभ्य घर के कुत्ते की तरह पिछले पैर समेट कर बैठ गया, और हलके से भौंका, "अजी सुनती हैं मोहतरमा?"

"टन-टन. . ."

"मैं आपसे बेतहाशा मोहब्बत करता हूँ जी."

"टन-टन टन-टन. . ."

"और आप?"      

"टन-टन. . ."

 अब पावलोव जी के कुत्ते का कुत्ता दिमाग फिरने लगा.

"कुछ तो कहिये?"

"टन-टन टन-टन. . ."

"देखिये, ये सरासर बदतमीज़ी है. मैं किसी ऐरे गैरे घर का कुत्ता नहीं, पावलोव जी का कुत्ता हूँ. साइकोलॉजी की हर किताब में मेरा उद्धरण होता है. समझी आप?"

"टन-टन. . ."

"उफ़, ज़िंदा भी हैं या मर गयी?"

"अब ये तो बक्सा खोलने पर ही पता चलेगा न." श्रोडिंगर जी की बिल्ली का जवाब आया.

1 comment:

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