28.12.16

ग़ालिब की सालगिरह

कल मेरे चहेते चचा मिर्ज़ा ग़ालिब की सालगिरह थी. उर्दू-फ़ारसी मेरी मादरे-ज़ुबां नहीं और कभी सीखी भी नहीं, रदीफ़-काफ़िये की तमीज़ हुयी नहीं, न तलफ्फुज में सफाई, न लफ्फाज़ी की औकात. फिर भी चचा और हमारे दरम्यां दो सदी का फ़ासला होने के बावज़ूद चचा से रिश्ता-ओ-राबता काफी पुख्ता है. जब हमारी पहली मुलाक़ात हुयी तो मेरी उम्र करीब 8 साल की थी. बयान कुछ यूँ है.

बच्चा ही था
जब वो मेरे हाथ लगा था
मन की कच मिट्टी में
आ गिरा था
पापा की बी ए की
किताबों में दबा
बित्ते भर का
पाकेट बुक

फिर उस मिट्टी पर गिरे
केमिस्ट्री की कितनी किताबों
के बुरादे
और लड़कपन में
डेबोनायर के चमकीले
सेंटरस्प्रेड्स की पालिश
मगर बीज जम गया
तो बस जम गया
एक बौना सा
बौन्साई भी उगा
आज भी जिस पर
गाहे-बगाहे उग आते हैं
फीके से कुछ शेर
मिट्टी खास उपजाऊ न थी
मगर खाली तो न गया
दीवान-ए-ग़ालिब
का वो सस्ता
पाकेट बुक

फ़िर हमारी खुशकिस्मती कहिये कि दूजे नंबर के चचा गुलज़ार ने चचा ग़ालिब का हमारी पीढी से तआरुफ़ कराने का बीड़ा उठा लिया, और क्या ख़ूब उठाया साहब. नसीर ने ग़ालिब की रूह को एक नयी शक्ल नया जामा दे दिया, जगजीत सिंह ने एक नयी आवाज़. और चचा ज़िंदा हो गए, ऐसे कि देख सको, सुन सको, समझ सको, चख सको. और ग़ालिब का अनोखा ज़ायका दिलो-ज़हन पे एक बार ग़ालिब हुआ, तो उम्र बीती, मगर छूटे नहीं छूटा. वो तल्ख़ सी चाशनी, वो ग़म-ए-इश्क़ से सराबोर मसाइल-ए-तसव्वुफ़ , वो खुद और खुदा से नोंक झोंक, वो अंदाज़े बयां सचमुच कुछ और ही था.

वैसे तो मुझे लगता है कि ग़ालिब का लिखा हर कोई समझ सकता है, या यूँ कहें कि ताउम्र समझते रहने की कोशिश कर सकता है, मगर हाँ, शायद ज़ुबान की समझ बीच में आ जाये. तो बस इस लिए चचा की एक ग़ज़ल को बोलचाल की हिंदी में लिखने की हिमाक़त कर रहा हूँ. उम्मीद है चचा बच्चे की गुस्ताखी समझ ज्यादा तवज्जोह नहीं देंगे. भूल-चूक की माफ़ी.

बस कि मुश्किल है हरेक काम का आसां होना
बड़ा मुश्किल है आदमी का भी इंसां होना
हाय दीवानगी का है शौक़ यूँ हरदम मुझको
खुद ही जाना उधर और फिर खुद ही हैरां होना
चाहने वालों की तू आख़िरी ख्वाहिश को न पूछ
वो तो चाहें हैं बस तलवार का नंगा होना
टूटते दिल का निवाला है, जख्म खाते हैं
जिगर के घाव का यूँ नमक में डूबा होना
की मेरे मरने के बाद उस ने ज़ुल्म से तौबा
हाय उस शर्मसार का ये शर्मिन्दा होना
हाय कपड़े की उन गांठों की क़िस्मत ग़ालिब
जिनकी किस्मत में हो किसी आशिक़ का फंदा होना

***

ओरिजिनल ग़ज़ल कुछ यूँ है:

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
वाए, दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना
इशरते-क़त्लगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना
इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना ख़ाना
लज़्ज़त-ए-रेश-ए-जिग़र ग़र्क़-ए-नमकदां होना
की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस ज़ूद-पशेमां का पशेमां होना
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना

5.9.16

will the real ganesh please stand up?

It's Ganesh Chaturthi today. And despite being an atheist, musing over Hindu Gods has become somewhat of a personal tradition. Perhaps it's the ingrained brahmanic samskars, or perhaps an innate inclination for seeking deeper meanings in mythology and in general, all stories.
Consider Ganesh. Don’t you think he is more than he is really letting on? His face- that of a cherubic elephant. His form- soft and ridiculously rotund. And his ride- a mouse. All this adds up to an overall comical effect. It is easy to imagine Ganesh as a portly uncle whom you could bother without fearing a backslap. Or even an over-friendly, albeit intelligent, pet. Almost no one thinks of Ganesh as fearsome or threatening.

However, if you really think about it, the appearance must be just that- an appearance. It is in stark contrast with his true capabilities. Gods forbid, if it ever came to a showdown among the Gods, Ganesh could literally be the last God levitating. Isn't he the personification of the cold fearsome power of intellect, one of the deadliest forces in nature, a razor that can slice through an obstacle or opponent with equal ease.

Then again, he is not merely intellect, he is also wisdom personified. Now wisdom is intellect overseen by kindness, a choice to be constructive and not destructive. In a way, his appearance is actually the most crucial piece of the legend. and not just a clever camouflage. I think he chooses to appear overtly affable and unassuming to counteract the threat he may otherwise exude. He chooses to make intellect, rationality, logic and wisdom appear benign and constructive. He chooses to fool us into thinking he is harmless. At least that is what I think. 

What do you think?


14.1.16

अधूरे प्यार का मलबा

जब दो शख्स तारों के महीन काम वाली आसमानी छत के तले ज़मीन के हरे बिछौने पे लेट, या कविता की केसर छिड़के बिना सीधा-सूखा कहें तो किसी सीलन वाली छत के तले बुसी चादर पे लेट एक सपना देखते हैं, जब उनमें से एक शख़्स (यानी मर्द) सपना सच होने से पहले ऊब के या रूठ के अनायास उठ के चल देता है, जब उस अधखिले सपने का ठूंठ उस पीछे छूटे शख्स (यानी मादा) में जमा रह जाता है, तब उस ठूंठ को जड़ सहित बाहर निकालने का, अधूरे प्यार का मलबा साफ़ करने का काम  औरांग का है. 

7.12.15

the lizard king

करीब 14 साल की उमर में मैंने जिम मौरीसन के बारे में पहली बार पढ़ा. याद नहीं कौन से अंग्रेज़ी अखबार की सन्डे मैगज़ीन हुआ करती थी (शायद Sunday Observer). उसकी बेलगाम क्रिएटिविटी और असमय मृत्यु ने मेरे नवयुवा, लेकिन सहज existentialist अंतर्मन पर गहरा प्रभाव डाला. पालिका से उसका पायरेटेड ग्रेटेस्ट हिट्स कैसेट खरीद कर सुना. फिर 1991 में ऑलिवर स्टोन की बायोपिक The Doors आई जिसमें Val Kilmer ने इस darkly enigmatic व्यक्तित्व को जीवंत कर दिया. तो कुछ इस तरह जिम मेरी आतंरिक माइथोलॉजी का एक स्थाई पात्र बन गया.

फिर मैं जैसे जैसे बढ़ा होने लगा, मुझे लगने लगा कि जिम एक फ़क़ीर नहीं बल्कि एक फेकर था. उसकी लिरिक्स भी काफ़ी हल्की तुकबंदी सी प्रतीत होने लगी.

करीब 30 की उमर में मैंने जिम की बायोग्राफी पढ़ी (Jim Morrison: Life, Death, Legend by Stephen Davis). साथ ही मैंने लिरिक्स के परे Doors की Jazz Rock शैली को musically सराहना शुरू किया. अब मुझे जिम कुछ कुछ समझ आने लगा. उसका freewheeling लिरिकल स्टाइल जो सबकौंशस व id को बिना इंटेलेक्चुअल हस्तक्षेप या फ़िल्टरिंग के कागज़ पर उतार देता था, Densmore की jazz drumming, शॉक व theatricality के एलेमेंट्स के बेहतरीन उपयोग के लिए एक नया आदर उपजा. खास तौर पे Morrison Hotel और L.A. Woman एलबम्स के लिए, जिम के भीतर के Adonis, Bacchus, Rimbaud व इण्डियन shaman के अनूठे सम्मिश्रण के लिए.

आज 8 दिसंबर है, जिम का 72वां जन्मदिवस. तो हैप्पी बर्थडे मिस्टर Mojo Risin. May you keep on rising.

8.9.15

पावलोव-श्रोडिंगर

प्यार और दुर्घटना कभी भी हो सकते हैं. और दुर्घटना से बचना तो फिर मुमकिन है. मगर प्यार से? तौबा तौबा !

तो पावलोव जी के कुत्ते को भी हो गया साहब. प्यार, वो भी कतई खूंखार. जब भी पड़ोस के श्रोडिंगर जी की बिल्ली के गले की घंटी सुनाई देती, उसकी लार टप-टप टपकने लगती. कुत्ता-बिल्ली सुन ऐसे काहे चौंक रहे हैं जी? प्यार ने कब जात-पांत, रंग-रूप, योनि-वोनी की हदों को माना है.

मगर श्रोडिंगर जी की बिल्ली बला की शर्मीली. कानों को सुनाई तो दे पर नज़र से नदारद. दिल में तो आये पर पंजों में नहीं.

तो आखिर एक दिन हिम्मत करके पावलोव जी का कुत्ता लार टपकाता, पूँछ हिलाता,घंटी की टन-टन को घात लगाता, श्रोडिंगर जी के घर जा पहुंचा. देखा तो घंटी की आवाज़ एक बक्से से आ रही थी.

कुत्ता अपने अंडकोष ठीक से चाट साफ़ कर बक्से के बगल में एक सभ्य घर के कुत्ते की तरह पिछले पैर समेट कर बैठ गया, और हलके से भौंका, "अजी सुनती हैं मोहतरमा?"

"टन-टन. . ."

"मैं आपसे बेतहाशा मोहब्बत करता हूँ जी."

"टन-टन टन-टन. . ."

"और आप?"      

"टन-टन. . ."

 अब पावलोव जी के कुत्ते का कुत्ता दिमाग फिरने लगा.

"कुछ तो कहिये?"

"टन-टन टन-टन. . ."

"देखिये, ये सरासर बदतमीज़ी है. मैं किसी ऐरे गैरे घर का कुत्ता नहीं, पावलोव जी का कुत्ता हूँ. साइकोलॉजी की हर किताब में मेरा उद्धरण होता है. समझी आप?"

"टन-टन. . ."

"उफ़, ज़िंदा भी हैं या मर गयी?"

"अब ये तो बक्सा खोलने पर ही पता चलेगा न." श्रोडिंगर जी की बिल्ली का जवाब आया.

18.8.15

औरांग का चस्का

औरांग को बचपन से ही ये चस्का लग गया था. जहां ख़याल में डीप फ्राइड चीज़ मिली, बस, उसकी तो लार बहने लगती थी. फिर वो चाहे मिसरों की चमचम वर्की चढ़ी कहानी हो, या लच्छेदार कुरकुरी नॉवल, रदीफ़-काफ़िये की चाशनी में डुबोई ग़ज़ल हो, या कानों में रेशा रेशा घुल जाने वाली नज़्म. या फ़िर नमकीन पे मीठे की पतली परत वाली कविता ही क्यों न हो, जिसको जितनी बार चखो अलग स्वाद आये. शुरू शुरू में तो औरांग नुक्कड़ की दुकान के माल से ही संतुष्ट हो जाता था. पर धीरे धीरे उसका चटोरापन बढ़ता गया. फिर एक दिन उसे चचा गुलज़ार की दुकान मिली, जहां ये सब मिलता था. वो भी कभी शुद्ध देसी उर्दू में बना तो कभी यू.पी. के अचारी हिंदी मसाले में, कभी पंजाबी में छना तो कभी अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों की बुरकन. बस वो दिन है और आज़ का दिन, औरांग आज भी घर जाते समय रास्ते में ही चचा की दुकान से कुछ न कुछ सामान पैक कराता जाता है.                          

22.6.15

पगली की मुस्कान

हम पांचवीं या छठी में पढ़ते थे जब पगली ने सेक्टर 4 के बस अड्डे को अपना घर बना लिया था. वो बस अड्डा हमारे स्कूल के रास्ते में पड़ता था. सेक्टर 3 और सेक्टर 4 के बीच की सड़क के उधर सेक्टर 4 का थाना और इधर पगली का बस अड्डा. जब हम टाइनी टोट्स के बगल वाले मैदान को पार कर कर धूलिया सर के पड़ोस के टेसू के पेड़ के नीचे से हो कर पॉवर स्टेशन को क्रॉस कर सेक्टर 4 की क्रासिंग पर पहुँचते थे तो पगली दिख जाती थी. बस अड्डे पे यूँ आराम से पसरी, मानो उसका लिविंग रूम हो. नज़र मिल जाए तो बच्चों की तरह मुस्करा देती थी. वहीँ बगल में ईंट का अनाड़ी सा चूल्हा. बाल ज़्यादा बढ़ते तो कोई काट जाता था. बड़े साइज़ के मर्दाना कपडे भी शायद कोई न कोई दे जाता था. वैसे तो उस उम्र में हम अपने छोटे से दायरे से बाहर की घटनाओं की ओर तटस्थ रहते थे, ज़्यादा सोचते नहीं थे, मगर पगली हमारे लिए कौतुहल का विषय ज़रूर थी. क्यों न हो. उस ज़माने में पागल घरों में ही झेल लिए जाते थे, उन्हें सड़क छानने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी (अब तो दिल्ली की सड़कों पर कितने ही पगले दीख जाते हैं, जटा दाढ़ी बढाए, जननांग उघाड़े). फिर एक दिन पगली का पेट बढ़ने लगा. हम आते जाते उसका पेट बढ़ते देखते रहे, सोचा नहीं क्यों कैसे. पुलिस थाने को भी शक की नज़र से नहीं देखा. पगली नज़र मिलने पर वैसे ही मुस्कराती रही. तब भी जब दिसंबर के महीने की कड़कड़ाती सर्दी में उसके बढे पेट ने बड़े साइज़ के मरदाना कपड़ों में भी छिपने से इंकार कर दिया. फिर यूँ ही एक दिन वहां से गुजरे तो पगली का पेट फिर समतल था. नज़रें मिली. इस बार पगली मुस्कराई नहीं.

13.5.15

कविता

लेखक यानी वो जो अपने विचारों उद्गारों को लेखनी व शब्दों के माध्यम से कागज़ पे उतार दे. लेखन अक्सर एक प्रोफेशन या एक शौक, या कभी कभी दोनों हो सकता है. मगर कवि कोई भी हो सकता है. कविता तो एक चश्मा है ज़िंदगी को देखने का. दुनिया को चखने का एक तरीका. एक आदत. एक जीवनशैली. फिर कवि के पास कागज़ या समय हो न हो, उसने वोकेबुलरी की दौलत कमाई हो या नहीं, कविता को उस से कोई नहीं छीन सकता. वो खुद भी नहीं.

31.3.15

the importance of being a fool, earnestly

I think I will put on that T-shirt. The bright yellow one with a hood and purple patchwork. The butt-ugly but well worn-in one.

Fall in love again. This time for real. With the right one. Or the same old one.

I think I will pack all that I have. Should fit in one travel bag. Up and leave. Visit somewhere I've never been. Nowhere safe.

Or learn a new skill. Master a new trade. Seek a new job. Found a new shop. Find a new hobby.

I think I'll never learn.

I think I'll just walk off. The sun warming my back. Face north-westwards. Just so. Heed the mountains' hushed call. Land ho.

Walk off that cliff. Like Wile E. Coyote. And keep walking.

I think I will pick a white rose. Pin it on my hat. All dandy like.

Let my dog come along. If it chooses to. Silly dog.

I think I'll stay a fool. For a day. For ever.

23.3.15

भगत

ये ऐसा ही चला आ रहा है. पिछले सौ सालों से, पिछले हज़ार सालों से, कई सदियों से, हमेशा से. ये ऐसे ही चलेगा. बदल ही नहीं सकता. और अगर बदल दें तो, हम बेनामी, सरफ़िरे, अव्यवहारिक, अहमक युवा? यानी क्रांति.

हर कोई आज़ाद हो तो कुछ नहीं हो सकता. लोगों को एकजुट करने के लिए, प्रगति के लिए, सबकी सम्पन्नता के लिए, ये ज़रूरी है कि हम आजादी की तिलांजलि दें. पूरी नहीं, बस थोड़ी. कुछ आवाजों को तो दबाना ही होगा. ज़रूरी है. भरोसा करो उनपे जिनको बागडोर दी है. कुछ समय दो. सवाल मत पूछो.

आज़ादी- सोचने की, अपनी बात को खुल कर कहने की. जब होती है तो नज़र नहीं आती. पर न हो तो? खुद ही गिरवी रख दी हो तो, कुछ पाने के लालच में? भीड़ का हिस्सा बनने के लालच में? कब ये चिड़िया एक समाज, एक देश के हाथ से निकल कर किसी शक्तिपूजक के पिंजरे की कैदी हो जाए, क्या पता.

कैसे उस छोकरे ने इस चिंगारी से आजादी के आईडिया को अपने दिल से लगाया होगा और इतनी हवा दी होगी कि वो धधक धधक कर सब लील गया. एक साधारण युवा मन के सपने, परिवार, प्रेम, और सर्वोपरि- जीजिविषा. यानी किसी भी कीमत पर जीवित रहने की उत्कट इच्छा. कुछ बचा तो उसकी हठ. जैसे गुरुद्वारे का केसरिया झंडा कोसों दूर से दिखता है, जैसे आग की लपटें आसमान को झुलसा देती हैं. वो फांसी चढ़ कर एक लीजेंड बन गया. एक सवाल. एक जवाब. जो वक़्त के साथ धूमिल न हो के, और जलाता है, और जलता है, और चमकता है.      

राम का नाम लें पर सहिष्णुता, करुणा, मर्यादा को धता बता दें. भगत सिंह की बात करें और उस के विचारों को घोल के पी जाएँ, ये कुछ ठीक नहीं.

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा